वक्त, भक्त, प्रभु, मित्र अढाई।
धर्म, कर्म, विद्या, भी ढाई।

जगत्पाल विष्णु भी ढाई।
ढाई कोस चले नित काया।
स्वस्थ निरोग रहे यह काया।
भगे मोह, मत्सर और माया।
स्वस्थ बदन में सुख सरमाया।
जागो जब तब सुखद सवेरा।
खोये समय न छँटे अँधेरा।
प्रेम, प्यार और प्रीत घनेरा।
उस घर में है स्वर्ग बसेरा।
आओ 'आकुल' प्रीत बढ़ायें।
दिन दूने हम मित्र बनायें।
ढाई अक्षर प्रेम सिखायें।
दुनिया की यह रीत सिखायें।
(पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में हवेली संगीत के अंतर्गत कीर्तनों का बहुत महत्व है। इनके मंदिरों में अष्टछाप पद्धति से दर्शन और ऋतु के भाव से कीर्तन किये जाते हैं। कुम्भनदास, छीतस्वामी, सूरदास, कृष्णदास समेत आठ कृष्ण्भक्त अष्टछाप कवियों के रचित कीर्तनों को शास्त्रीय रागों में रच कर मंदिरों में मंगला,शृंगार,ग्वाल,राजभोग,उत्थापन,भोग,संध्या,शयन आठों सेवाओं के कीर्तन गाये जाते हैं। इसी पद्धति में से प्रख्यात एक कवि कृष्ण भक्त श्री कृष्णदास जी का एक पद है