22 जनवरी 2009

अभिव्यक्ति

दोस्‍त और दोस्‍ती पर मेरी अभिव्‍यक्‍ति

1. सभी दोस्‍त नहीं बन जाते.
जमाना दुश्‍मन बन जाता है.

2. दोस्‍त वो है जिसमें, दोष तक न हो.
दोष मन में वो दुश्‍मन है, इसमें शक़ न हो.

3. वो दोस्‍त क्‍या जिसे दोस्‍ती पर फ़ख्र नहीं होता.
उस दोस्‍त को दोस्‍ती करने का हक़ नहीं होता.
तुम ज़िन्‍दा हो इस मुग़ालते में मत रहना 'आकुल',
मुरदों को करवट बदलने का हक़ नहीं होता.

5 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

aapne apne blog per kuch likha nahin?

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

आकुल जी स्‍वागत है...! पर "यह पत्‍थरों का शहर है /बेजान बुत सा खडा़,इसके सीने में
भरा गुब्‍बारों का जहर है/यह पत्‍थरों का शहर है...." इसलिए जरा संभल के...! हाँ; पुरस्‍कार में आपका
पत्‍थरों का शहर मिला धन्‍यवाद...!

आकुल ने कहा…

शोभाजी
नमस्‍कार,
अभिव्‍यक्‍ति के माध्‍यम से धीरे धीरे कुछ प्रस्‍तुत कर रहा हूं. अभी ब्‍लॉग को विकसित करने के लिए अभ्‍यास कर रहा हूं. मुझे टिप्‍स दें किस तरह अपनी काव्‍य जिजीविषा को अंतरजाल के माध्‍यम से ब्‍लॉग पर प्रस्‍तुत करूं.
धन्‍यवाद.
'आकुल'

आकुल ने कहा…

हक़ीर जी
नमस्‍कार,
आपको पुस्‍तक मिली, संतोष हुआ.
पत्‍थरों को चुनौती और दोस्‍ती का पैग़ाम देता रहता हूं. आज की आबो हवा में 'पत्‍थर दिल बन कर जी जाती है ज़िन्‍दगी'. आप से ई संवाद सुखद लगा.
'आकुल'

शरद तैलंग ने कहा…

सान्निध्य ब्लॊग प्रारम्भ करने पर बधाई । कृपया अपनी पद्य रचनाओं में बहर (मात्राएं/मीटर) में संतुलन बनाने का प्रयास कीजिए आप तो संगीत के जानकार भी है आपके लिए तो यह बहुत आसान होगा ।