30 जनवरी 2013

कुण्‍डलिया

 सर्दी के दो रूप
 1-
मौसम आया शीत का, धूप सुहाये खूब।
गरम वसन तन पर सजें, लगे भूख भी खूब।।
लगे भूख भी खूब, अँगीठी मन को मोहे।
खाना गर्मागर्म, रजाई कम्बल सोहे।।
कह ‘आकुल’ कविराय, बनेगी सुंदर काया।
 करो खूब व्यायाम, शीत का मौसम आया।।
2-
जाती सरदी कह गई, मत निसर्ग को भूल।
जो जड़ इसकी काटता, मिलते उसको शूल।।
मिलते उसको शूल, बाढ़ भूकम्प सताते।
पंचतत्‍व की नीति, भू विज्ञानी बतलाते।।
कह ‘आकुल’ कविराय, प्रदूषण ने हद करदी।
बरसेगा ॠतु कोप, कह गई जाती सरदी।।

आदर्श
1-
मानवता शरमा गई, शर्मसार संसार।
कहाँ कमी थी रह गई, दिये न कुछ संस्कार।।
दिये न कुछ संस्कार, दिये होते जो ससमय।
होता मनुज न क्रूर, और न आता यह समय।।
कह ‘आकुल’ कविराय, आज वो घड़ी आ गई।
प्रजा पिटी पथ बीच, मानवता शरमा गई।।
2-
आदर्शों की पोटली, खो दी बीच बजार।
कविवर चिंता में पड़े, और हुए लाचार।।
और हुए लाचार, ढूँढ़ ना पाए दिन भर।
लौटे घर थक हार, पोटली पाई दर पर।।
बाँटें कभी न सीख, करें न बात अर्शों की।
लेकर लौटी सीख, पोटली आदर्शों की।।

2 टिप्‍पणियां:

DR. RAGHUNATH MISRA ने कहा…

saarthak-prerak-pathaneey.

Shyamlal Upadhyaya ने कहा…

आपकी दोनों रचनाएं, आपकी सुरुचि सम्पन्नता की प्रतीक हैं ।
प्राप्तांक ः 10/10 पूर्णांक