22 मई 2018

परियों के दशे से क्‍या धरती पे आ रही है (गीतिका)


छंद- दिग्‍पाल/मृदुगति
मापनी- 221 2122 221 2122
पदांत- रही है
समांत- आ

परियों के’ देश से क्‍या धरती पे’ आ रही है
इतना बता ए’ तितली हमको तू’ भा रही है

तेरे हैं’ पंख इतने सुंदर व रँग बिरंगे,
इठलाती’ नाचती तू क्‍या गीत गा रही है.

हर फूल से लगा क्‍यों रिश्‍ता ते’रा पुराना,
फूलों से’ अंग लग कर गुलशन से’ जा रही है.

है कौन वो चितेरा, जिसने तुझे सजाया ,
उसकी कला गजब तेरे तन पे’ ढा रही है;

जब सुन चुकी पलट के बोली वो’ मुस्‍कुरा कर,
सौग़ात ये प्रकृति की धरती से पा रही है.

संदेश मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने,
मानव  की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.

खो जाउँगी न भू पर यदि स्‍वच्‍छता रहेगी,
इस डर से ति‍तलियों में मायूसी’ छा रही है.

8 टिप्‍पणियां:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

नमस्ते,
आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 24 मई 2018 को प्रकाशनार्थ 1042 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।



Sudha Devrani ने कहा…

बहुत खूबसूरत रचना खूबसूरत तितली सी ....साथ में प्रकृति का सार्थक संदेश....
वाह!!!

रेणु ने कहा…

तितली के सुंदर और कोमल पंखों जैसी सुंदर रचना | सादर शुभकामनाये |

Meena sharma ने कहा…

बचपन में तो हम तितलियों को छोटी छोटी परियाँ ही कहते थे... कौन ऐसा होगा जिसने बचपन में तितली पकड़ने की कोशिश ना की होगी। बहुत खूब लिखा है आपने। सादर।

Rohitas Ghorela ने कहा…

सुंदर रचना

आकुल ने कहा…

आभार मित्र

गोपेश मोहन जैसवाल ने कहा…

अच्छा सन्देश, अच्छी कविता !

Alaknanda Singh ने कहा…

बहुत खूब प्रकृति से जोड़़कर दिया संदेश..कि मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने, मानव की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.