22 नवंबर 2017

मन पर इतनी चोटें की हैं (गीतिका)

छंद- सार.
मात्रा भार- 28. 16, 12 पर यति, अंत 22
पदांत- हैं
समांत- अरे

मन पर इतनी चोटें की हैं, इतने घाव करे हैं.
टूटे मन में अब भी गहरे, कितने घाव हरे हैं.

जीवन पथ पर इतनी चोटें, हरसू खाई हमने,
तन जर्जर है लेकिन मन में, ढेरों राज धरे हैं.

धरती की भी हालत लगभग, इस मन जैसी ही है,
घोर प्रदूषण से अंदर तक, सौ तूफान भरे हैं.

सूरज की ऊर्जा से होता, हर दम जीने का मन,
मन में स्‍वप्‍न पले हैं लेकिन, रहते डरे-डरे हैं.

उर्वर हो अब वसुंधरा भी, हो यह मन भी ऊर्जित,
मुक्‍त उड़े मन हट जायें जो, साँसों पर पहरे हैं

तन यह रहे निरामय, मन भी, रहे प्रफुल्लित कुसुमित,
मौसम आते बहुत समय से, कब पूरे ठहरे हैं.

‘आकुल’ जीवन का यह लगता, काल संक्रमण का है.
किस करवट बैठे मानव के, प्रश्‍न लिये चे’हरे हैं. 

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